अस्तित्व

सदियां गुज़र गयी हैं निकले हुये सड़क से,
‘कान्त’ अब यहाँ पर कोई जानता भी है

 

इस बार बारिश खूब जम के हुयी थी. सारे गाँव में खूब हलचल रही पूरे मौसम भर. बरसात का मौसम कब खत्म हुआ पता ही नहीं चला. लोगों के घरों में पुरानी रजाइयां आंगन में पडी ख़ाट पर धूप के लिये फैलनें लगीं. नये पुराने स्वेटरों की बुनावट और मरम्मत के लिये जानकार बहू बेटियों की तलाश उन दिनों जोरों पर होती। ऐसे में हम सब अपनी बाल मण्डली के साथ खाट पर फैली रजाइयों में नमी की चिर परिचित गन्ध सूंघते हुये लुका छिपी खेला करते. आसमान में उडते हुये बादलों और नयी पुरानी रूई समेटती हुयी अपनी दादी के सामने धूप में चटाई पर फैली रूई के सफेद गालों में न जाने क्या क्या साम्य ढूंढा करते .

मेरे आंगन को बाहर के अहाते से अलग करने वाली कच्ची दीवार इस बार बरसात के मौसम में ढह गयी थी. मौसम की भेंट चढ चुकी दीवार पर फिसलते हुये हम खूब खेला करते. अधगिरी दीवार की तुलना मैं पहाड क़ी चोटियों से करते हुये अक्सर खुद को पर्वतारोही समझता. कई बार मैं भगवान से प्रार्थना करता कि हे भगवान! इस दीवार को ऐसे ही रहने दिया जाय. लुका छिपी करते हुये हम सब बच्चों को न जाने कितनी डाँट पडती किन्तु खेल में मिलने बाले आनन्द की तुलना में यह बहुत छोटी सी कीमत होती. न जाने कितनी कल्पनायें घेरे रहती थी उन दिनों.

एक दिन देखा गिरी हुयी दीवार के ढेर से एक अंकुर फूटा था. ध्यान से देखा वह नीम का अंकुर था. अब मैंने अपने खेल को संयत कर लिया था. जब भी समय मिलता उस बढते हुये अंकुर के पास दौड ज़ाता. बढते हुये अंकुर को निहारते हुये घण्टों बीत जाते पता ही नहीं चलता. स्कूल से वापस आते ही बस्ता फेंकता और पहले वहीं पहुँचता. कोई उस छोटे से नीम के पेड क़ो नोच न ले मैं इस का बिशेष ध्यान रखता. सींचने की कभी जरूरत ही नहीं पडी. बस बचपन की लुका छिपी खेलते खेलते वह पेड और मैं कब बडे होते गये पता ही नहीं चला.

अम्मा उस पर सवेरे की पूजा के बाद एक लोटा जल अवश्य चढाती थीं. ‘नीम के पेड में देवी का वास होता है’ एक दिन उन्होंने मुझे बताया था. जब भी फुसर्त के क्षणों में नीम के पेड़ की ओर देखता वह अपनी डालों को हिला हिला कर मुझसे बातें करता प्रतीत होता. कभी लगता उसे मेरे बचपन की हर बात याद है . अक्सर अपने लौंछों के साथ झूम झूम कर वह अपनी खुशी मुझसे प्रकट करता.

खेत खेत में बोरवेल हैं. अन्धाधुन्ध जल दोहन जारी है. पहले की तरह नहीं दो बैलों के पीछे तक-तक बाँ-बाँ करते रहो और फिर ‘ कारे बदरा कारे बदरा पानी तो बरसा रे ‘ गाओ ढोल के साथ. आज की पीढी क़ा किसान¸ खेती और गाँव सब आधुनिक हैं.

समय बीतते देर नहीं देर नहीं लगती. मैं स्कूल की पढायी समाप्त कर कालेज की पढायी के लिये शहर आ गया था. धीरे धीरे घर सूना होने लगा अम्मा दादी से भी पहले चली गयीं. नीम के पेड पर अब जल¸ कभी- कभार दादी ही चढाती थीं. बार बार शेव करने से मेरी दाढी क़े बाल कठोर होने लगे थे. साथ ही कठोर हो चली थी नीम के पेड क़ी छाल भी. एक दिन दादी भी नीम के पेड क़े नीचे चिर निद्रा में सो गयीं. मिट्टी की दीवारें, कोठरी और दादी, सबके साथ छोडने के बाद नयी बहुयें घर में आ चुकी थीं . एक के बाद एक सारी कच्ची दीवारें पक्की होती चली गयीं. अब नीम के पेड पर कोई जल न चढाता था. बस दादा की खटिया जरूर नीम के पेड क़े नीचे पड़ी रहती. उन्होने भी मानो अघोषित सन्यास ले लिया था. घर में अब नीम के पेड क़े अलावा मेरा कोई पुराना साथी नहीं रहा था.

जब भी छुट्टियों में गाँव जाता नीम के पेड क़ी छाँव में ही लेटता. मुझे लगता नीम का पेड और मैं एक दूसरे से बातें कर सकते थे. वह अपनी डालें हिला हिलाकर लौंछों के साथ झूम झूमकर मुझसे ढेर सारी पुरानी बातें करता प्रतीत होता.

पक्की दीवारों के नये घर में पक्के ऑंगन के साथ अब पीढी भी बदल रही थी. बच्चों की संख्या काफी बढ चुकी थी. नीम के पेड क़ी डालों पर अक्सर झूले पडते. वक्त जरूरत पर लकडी क़े लिये डालें भी काट ली जाती. मैं छुट्टियों में जब भी शहर से गाँव पहुँचता नीम अपनी मूक कहानी मुझे सुनाता. प्रायः कहता अब बाबूजी भी किसी से कुछ नहीं कहते. तने को घेरे वह चबूतरा जिसे हम होली दीवाली रंग पोत कर साफ सुथरा रखते थे, अब उजाड मिट्टी का ढेर था. सूने तने के साथ बाबू जी की गाय श्यामा’ बँधी रहती. नीम का पेड उसे छाया और गाय उसे खाद देते हुये एक दूसरे के साथी थे. अब कोई पेड क़ी परवाह नहीं करता. किन्तु नीम सब कुछ चुपचाप सहता रहता. आखिर उसका जन्म इसी घर में हुआ था. वह खुद को परिवार का अंग समझता. हरसाल पतझड में सारे पत्ते झडने के बाद नयी कोंपलें आ जातीं और पेड फ़िरसे हरा भरा हो जाता. प्रायः परिवार के छोटे बच्चों को अपने नीचे किलकारिआं भरते देख वह निबौरियों के साथ हवा में झूम कर अपनी खुशी प्रकट करता. परिवार में बाँटने के लिये उसके पास दूर तक फैली छाया और ढेर सारी खुशी ही थे. और फिर एक दिन बाबू जी भी उसकी छाया में सदा के लिये सो गये. गाय और नीम का पेड मूक एक दूसरे को चुपचाप देखते रह गये बस. गाय की ऑंखों से बहते ऑंसू और नीम के नीचे फैले सन्नाटे पर किसी का ध्यान न गया.

वो झूले, वो सरसराती हवा के साथ झूम झूमकर बातें, कुछ भी आकृष्ट न कर सका, किसी को भी. हा रे मानव कहीं कोई कृतज्ञता नहीं. मेरा अन्तिम साथी भी चला गया.आखिर मनुष्य की भाँति पेड पौधों को पूरा जीवन जीने का अधिकार क्यों नहीं.

गाँव में टीवी और ट्रैक्टर के प्रवेश के साथ ही नया जमाना आया. पशुओं की संख्या कम होने लगी. अब घर में गाय नहीं है. कौन उठाता है गोबर, कहीं टिटनेस हो जाय तो….? आज के लोगों को सब कुछ मालुम है. पेड अब उदास रहता है. उसकी छाया में खडे ट्रैक्टर से जब भी धुऑं निकलता है उसको घुटन होती है. इस बार पतझड क़े बाद उसकी दो शाखाओं में नन्हीं कोंपलें नहीं आयीं. नीम की दोनों डालें सूख गयीं. शायद जमीन के नीचे जल स्तर काफी नीचे चला गया है.खेत खेत में बोरवेल हैं. अन्धाधुन्ध जल दोहन जारी है. पहले की तरह नहीं दो बैलों के पीछे तक-तक बाँ-बाँ करते रहो और फिर ‘ कारे बदरा कारे बदरा पानी तो बरसा रे ‘ गाओ ढोल के साथ. आज की पीढी क़ा किसान¸ खेती और गाँव सब आधुनिक हैं.

अस्तु… नीम की डालें क्यों सूखीं किसी ने ध्यान नहीं दिया. हाँ एक दिन मजदूर बुलाकर दोनों डालें काट दी गयीं. इसबार गाँव गया तो भुजाहीन मनुष्य की तरह दुखी लगा नीम. हवा के साथ झूम झूमकर मुझसे बातें करने वाला पेड बस चुपचाप¸ ठूंठ की भाँति खडा रहा. सब कुछ अप्रत्याशित लगा.

इस बार गाँव से कोई स्फूर्ति कोई नवउत्साह अथवा उर्जा लेकर नहीं लौटा था. बापस शहर की आपाधापी भरी जिन्दगी में आने पर भी वह भुजाहीन पेड मेरी ऑंखों से विस्मृत न होता. लगातार कहीं कुछ कचोटता रहता. आफिस में¸ घर में, सब कुछ सूना सूना लगता. लगता जीवन में कोई हादसा हो गया है. मन नहीं माना¸ पखवाडे क़े भीतर ही छुट्टियाँ लेकर वापस गाँव लौटा.

गाँव पहुँचते ही मेरी कल्पना से परे दृश्य, मेरे सामने था. नीम का पेड पूरा काट दिया गया था. मुझे कोई खबर तक नहीं. शायद इसकी कोई जरूरत भी नहीं थी. मैं स्तंभित था. समझ नहीं आया किससे क्या कहूं. जहॉ पर कभी नीम का भरा पूरा पेड हुआ करता था, अब वहाँ पर गढ्ढा था. कुल्हाडी क़ी मार से छिटके हुये तने के छोटे छोटे टुकडे चारे ओर छितरे थे. युध्द के मैदान में लडते हुये शहीद होने वाले योध्दा के शवावशिष्टों की भाँति. किन्तु यह तो कोई युद्व नहीं था. बेचैनी से पेड क़ी जडों के पास गया. देखा वर्षों से जमी जडों के अवशेषों से हफ्तों बाद भी अब तक पानी रिस रहा था. मुझे लग रहा था जैसे यह घर मेरा नहीं है. इस घर में मेंरेपन की पहचान मेरा बचपन का साथी, यह पेड ही तो था. लगता है कोई साथी कोई पहचान नहीं है अब यहाँ पर. मिट्टी की दीवारें, वह बचपन की मेरी कोठरी, अम्मा, दादी, दादा सभी तो एक एक करके साथ छोडते चले गये थे. किन्तु यह पेड यह मरा तो नहीं था. मेरी अन्तिम सांस तक वह मेरी हर छुट्टी का इन्तजार करता रहेगा, मैं जानता था. परन्तु नयी पीढी क़ो तो अपनी पसन्द का हाल बनवाने के लिये उसी भूमि की आवश्यकता थी जहाँ यह अभागा पेड था.

अपनी जरूरतों के लिये नीम को बेदखल कर दिया गया. उसका अपराध क्या था. गली कूचे फुटपाथ और शमसान तक की भूमि पर कब्जा करने वाले मनुष्य उसे बेदखल करने वाले से मुआवजा माँगते हैं. किन्तु आज उसी सभ्य समाज में नीम के पेड क़ो अपनी जरूरत के लिये उसकी भूमि से हटा दिया गया…. हटा दिया …. नहीं नहीं काट दिया. क्या यह उसकी हत्या नहीं. कहीं कोई सुनवाई नहीं. पैतृक अधिकार की दुहाई देने वाले समाज में पेड पौधों को लगानें सींचने वाले पुरखों को क्या इस बात की वसीयत करनी पडेग़ी कि उनके बाद उनके लगाये पेड पौधों की रक्षा की जिम्मेदारी उनकी सम्म्पत्ति पाने वाले की होगी. अपने बच्चों के साथ साथ मानव पेड पौधों को भी क्या बच्चों की तरह नहीं पालता है.

वो झूले, वो सरसराती हवा के साथ झूम झूमकर बातें, कुछ भी आकृष्ट न कर सका, किसी को भी. हा रे मानव! कहीं कोई कृतज्ञता नहीं. मेरा अन्तिम साथी भी चला गया. आखिर मनुष्य की भाँति पेड पौधों को पूरा जीवन जीने का अधिकार क्यों नहीं?

लगता है मेरा सारा शरीर शिथिल होता जा रहा है. क्या मेरे शिथिल शरीर को अपनी जरूरतों के आडे आने पर ये लोग मुझे भी अपने रास्ते से हटा देंगे. नीम की जडों से निकलने वाला पानी उसके ऑंसू थे. शायद उसने अपने अन्तिम क्षणों में मुझे याद किया होगा कि मैं उसके बचपन का साथी काश उसकी रक्षा कर सकता. किन्तु ऐसा न हुआ. मैं उसके प्रति अपने कतृव्य का निर्वहन न कर सका. हृदय विदीर्ण हो गया है ऑंखों में ऑंसू अब रूक नहीं पाते हैं. मेरा साथी मेरा चिर मित्र चला गया. लगता है कोई मुझे झकझोर रहा है.

‘अरे उठोगे नहीं क्या’ पत्नी की आवाज से मैं जाग जाता हूं. वह चाय का प्याला पास की टेबल पर रखती है. मैं जागकर उठ जाता हूँ. लगता है मेरी ऑख की कोरों से तकिया गीला हो गया है.
‘आज आफिस नहीं जाना है?’ वह शेविंग का सामान टेबल पर रखते हुये फिर पूछती है.
‘आज शाम हम गाँव जा रहे हैं. तुम तैयारी कर लेना’ मैं उसकी बात को अनसुना करते हुये अपनी बात कहता हूँ.
‘कोई भयानक सपना देखा है? उसका ध्यान मेरी ऑंखों की गीली कोरों पर जाता है.

अचानक निर्णय से वह मुझे ताकती रह जाती है. किन्तु मैं जानता हूँ कि मुझे गाँव जाकर नीम के पेड क़ी रक्षा के लिये स्थायी व्यवस्था करनी है. मैं जानता हँ कि मेरे अपने घर में मेरा अस्तित्व उस पेड क़े होने से ही है. मैं चाहता हूँ कि एक दिन मैं भी अपने पिता की भाँति अपने चिर मित्र की छांव में शान्ति के साथ सो सकूं. यदि मैं शीघ्र ऐसा न कर सका तो एक दिन मेरा अस्तित्व भी नहीं रहेगा.

श्रीकान्त मिश्र ‘कान्त’
skant124@gmail.com

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