महिला आंदोलन के सौ साल- मंजु मल्‍लिक मनु

पुरुषों के वर्चस्‍व वाले समाज में बराबरी और सम्‍मान के लिए हमारा संघर्ष जारी रहेगा। हालांकि सफर अभी लंबा है लेकिन उम्‍मीद खत्‍म नहीं हुई है। हमें भरोसा है अपनी ताकत और एकजुटता पर। एक दिन समाज में हम सम्‍मान के साथ सर उठा कर पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर चलेंगे। ऐसा मानना है उत्तराखंड के विभिन्‍न इलाकों से आईं उन महिलाओं का जो लगातार अपने वजूद की खातिर संघर्ष कर रही हैं। महिला आंदोलन के सौ साल पूरे होने पर देहरादून में महिला सामख्‍या ने ‘सृजन और संघर्ष’ के तहत दो दिवसीय सम्‍मेलन का आयोजन किया। सम्‍मेलन में महिलाओं से जुड़ी दिक्‍कतों पर चर्चा तो हुई ही, महिलाओं ने अपने जीवन से जुड़े तजुर्बे को भी साझा किया। ‘महिला सामख्‍या’ महिला सशक्तिकरण के लिए उत्तराखंड के छह जिलों में काम कर रहा है और यहां की अनपढ़ और गरीब महिलाओं को शिक्षित कर उन्‍हें रोजगार मुहैया कराने की दिशा में लगातार सक्रिय है। समय-समय पर सभा-संगोष्‍ठियों के जरिए भी इन महिलाओं को जीवन के सुख-दुख की जानकारी देकर उन्‍हें अपने वजूद के लिए संघर्ष करने को प्रेरित किया जाता है। मशहूर कवियत्री महादेवी वर्मा के जन्‍मदिन पर महिला सामख्‍या हर साल सम्‍मेलनों-समारोहों के जरिए महिलाओं की आवाज को मजबूती के साथ उठाता है। महिला सामख्‍या की निदेशक गीता गैरोला का कहना है कि लंबी जद्दोजहद के बाद महिलाएं अपने अधिकारों को लेकर सचेत हो रही हैं। पहले थोड़ी दिक्‍कत जरूर हुई लेकिन धीरे-धीरे काम आगे बढ़ा तो महिलाओं को भी लगा कि यह संगठन उनका अपना है और आज छह जिलों चंपावत, उत्तर काशी, उद्यमसिंह नगर, नैनीताल, पौड़ी और टिहड़ी में करीब पच्‍चीस हजार सदस्‍य हैं। महिला सामख्‍या इन जिलों के 22 विकासखंडों के करीब ढाई हजार गांवों में काम कर रहा है। यह अपने आप में बड़ी बात है। संगठन अब बहुत गंभीरता से महिला बैंक खोलने पर विचार कर रहा है। हालांकि यह काम थोड़ा मुश्‍किल जरूर है लेकिन गीता गैरोला को उम्‍मीद है कि यह काम भी जल्‍द ही संगठन शुरू करने में सक्षम होगा। बड़ी बात यह है कि महिला सामख्‍या जनगीतों के माध्‍यम से महिलाओं में अलख जगा रहा है। संगठन की महिलाएं न सिर्फ गीत लिखती हैं बल्‍कि उनकी धुन बना कर उसे पूरी ऊर्जा से गाती हैं और अपनी पहचान को लोगों के सामने रखती हैं। इन गीतों की वजह से महिलाओं में जागरूकता भी बढ़ी है और अपने होने का एहसास भी।
उत्तराखंड की राज्‍यपाल मारग्रेट अल्‍वा ने सम्‍मेलन का उद्‌‌घाटन किया। उन्‍होंने इस मौके पर गीता गैरोला के संपादन में प्रकाशित पुस्‍तक ‘ना मैं बिरिवा, ना मैं चिरिया’ का विमोचन भी किया। उद्‌घाटन की औपचारिकता के बाद दो दिनों के इस सम्‍मेलन में चार सत्रों में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर बातचीत हुई। ‘महिला आंदोलन के सौ साल’ ‘महिला आंदोलन और मुसलिम महिलाएं’ ‘महिला आंदोलन और दलित महिलाएं’ और ‘महिला आंदोलन और गांधी’ पर आयोजित विचार-विमर्श में महिलाओं से जुड़ी समस्‍याओं पर जोरदार बहसें हुईं। सवाल उठाए गए और इन सवालों के जवाब भी तलाशे गए।
सम्‍मेलन में इस बात का जिक्र बार-बार हुआ कि हिंसा का कोई रूप-रंग, जाति, धर्म और वर्ग नहीं होता। यह तो बस हिंसा होती है, चाहे महिला फिर किसी भी धर्म और जाति की हो। हालांकि कुछ महिलाओं की राय इससे अलग थी और जातीय आधार पर यह सवाल भी उठाए गए कि हिंसा की शिकार महिलाएं खास समुदाय की होती हैं। दलित और पहाड़ की महिलाएं इस हिंसा का शिकार ज्‍यादा होती हैं।
जया श्रीवास्‍तव का मानना था कि इस तरह की बातें तो मुसलिम महिलाओं को लेकर भी कही जा सकती है। खास कर गुजरात के दंगों में मुसलिम महिलाओं के साथ जिस तरह का जघन्‍य अपराध किया गया वह सोच कर ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि कुछ खास सोच रखने वाली महिलाएं ही इसे सही बताती हुईं घूम रही हैं और इसकी वजह बस इतना है कि जिन महिलाओं के साथ गुजरात में जो घटा वे मुसलमान थीं। दलित महिलाओं के आंदोलन पर रजनी रावत ने अपनी बात रखी। मुसलिम महिलाओं की भूमिका पर शीबा असलम ने अपना वक्तव्‍य महिलाओं की बजाय मुल्‍लाओं पर ज्‍यादा केंद्रितरखा। जाहिर है ऐसे में उन मुसलिम महिलाओं का जिक्र नहीं हो पाया जिन्‍होंने साहित्‍य-कला के क्षेत्र में रिवायतों को तोड़ कर एक नए आंदोलन को खड़ा किया था। पत्रकार फ़ज़ल इमाम मल्‍लिक ने कहा कि मज़हब हमें अनुशासित रख कर इंसान बनाता है। इस्‍लाम के साथ दिक्‍क़त यह रही कि धर्म गुरुओं ने किताबों से उतनी ही बातें लोगों के सामने रखीं जो उनके फ़यादे के लिए थीं। लेकिन इस्‍लाम ने औरतों के लिए जो किया उसका जिक्र नहीं किया जाता लेकिन इस बात का ढोल जोरशोर से पीटा जाता है कि इस्‍लाम महिला विरोधी है जबकि हज़रत मोहम्‍मद ने कई ऐसी नज़ीर पेश की है जिससे औरतों को समाज में सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा दिलाई है। इन सत्रों में हम्‍माद फारूकी, मैत्रीय पुष्‍पा, बटरोही, ओमप्रकाश बाल्‍मिकी, कमला पंत, सिद्धेश्वर सिंह, सुचित्रा वैद्यनाथ, बेबी हालदर, सविता मोहन, मंजु मल्‍लिक मनु, इंदिरा पंचोली ने भी अपने विचार रखे। शुरुआती सत्र में बटरोही ने ‘महादेवी के साहित्‍य में स्‍त्री विमर्श’ विषय पर अपना आलेख पढ़ा। उन्‍होंने कहा कि महादेवी वर्मा की रचनाओं का फिर से मूल्‍यांकन करना ज़रूरी है। चर्चा में पत्रकार राजीव लोचन शाह, डा. शेखर पाठक और कृष्‍णा खुराना ने भी हिस्‍सा लिया। डा दिवा भट्ट ने ‘महिला आंदोलन और गांधी’ पर बीज भाषण दिया।
सम्‍मेलन में कई महिलाओं ने अपनी आपबीती सुनाई। अपने संघर्ष, पुरुषों की दुनिया में अकेले रहते हुए अपनी लड़ाई किस तरह लड़ी, इसका बखान उन्‍होंने किया। अपने जख्‍मों को कुरदते हुए उन महिलाओं की आंखें कई बार छलकीं। पर यकीनन उनके हौसलों की दाद देनी होगी क्‍योंकि उन्‍होंने सारे विरोध के बावजूद न सिर्फ अपने वजूद को बचाया बल्‍कि आज वह उसी जगह और समाज में सर उठा कर जी रही हैं। महिला सामख्‍या ने ऐसी करीब दर्जन भर महिलाओं को भी सम्‍मानित किया जिन्‍होंने अपने बूते, अकेले अपने वजूद की खातिर एक बड़ी लड़ाई लड़ी और आखिरकार उस लड़ाई को जीत कर कमजोर महिलाओं का संबल बनी हैं।
दो दिनों के इस सम्‍मेलन में दो नाटकों का मंचन भी हुआ। पहले दिन संभव नाट्य मंच ने ‘फट जा पंचधार’ का मंचन किया तो दूसरे दिन नैनीताल की रंग संस्‍था ‘युगमंच’ ने ‘जिन लाहौर नहीं देख्‍या’ का मंचन चर्चित रंगकर्मी जहूर आलम के निर्देशन में किया। प्रस्‍तुति के लिहाज़ से दोनों नाटकों ने दशर्कों से सरोकार बनाया।

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