यूँ अनावरित हुए ‘काव्यनाद’ और ‘सुनो कहानी’

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19वें विश्व पुस्तक मेले में हिन्द-युग्म ने कई तरीके से धूम मचाई। किसी इंटरनेटीय समूह का प्रकाशन में एक साथ पाँच पुस्तकों के साथ प्रवेश हो या फिर साहित्य और संगीत के मेल का अभिनव प्रयोग, ये हिन्द-युग्म के ऐसे अध्याय बने जिनको पढ़कर हिन्दी की इंटरनेटीय उपस्थिति की गंभीरता का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

विश्व पुस्तक मेला की शुरूआत 30 जनवरी 2010 को हुई। 31 जनवरी को हिन्द-युग्म ने तीन पुस्तकों के लोकार्पण का कार्यक्रम आयोजित किया (इन पुस्तकों में से ‘शब्दों का रिश्ता’ हिन्द-युग्म के अपने प्रकाशन की पुस्तक थी)।

1 फरवरी 2010 को नई दिल्ली के प्रगति मैदान के सभागार-2 में हिन्द-युग्म ने अपना ‘आवाज़ महोत्सव’ मनाया जिसमें जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं के संगीतबद्ध एल्बम ‘काव्यनाद’और प्रेमचंद की कहानियों के एल्बम ‘सुनो कहानी’ का विमोचन हुआ। जहाँ ‘सुनो कहानी’ का विमोचन महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने किया, वहीं काव्यनाद का विमोचन वरिष्ठ कवि और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक बाजपेयी ने किया। इस कार्यक्रम में संगीत विशेषज्ञ और ‘संगीत-संकल्प’ पत्रिका के संपादक डॉ॰ मुकेश गर्ग दोनों एल्बमों पर टिप्पणी करने के लिए उपस्थित थे। संचालन प्रमोद कुमार तिवारी ने किया।


‘काव्यनाद’ का लोकार्पण करते विभूति नारायण राय, अशोक बाजपेयी और डॉ॰ मुकेश गर्ग

कार्यक्रम की शुरूआत में हिन्द-युग्म के कार्यकर्ता दीप जगदीप ने आवाज़ की गतिविधियों का संक्षिप्त परिचय उपस्थित श्रोताओं को दिया। आवाज़ की गतिविधियों से रूबरू होकर बहुत से दर्शकों को सुखद आश्चर्य हुआ कि सजीव सारथी के निर्देशन में हिन्द-युग्म का आवाज़ मंच ढेरों विविधताओं को समेटे है।

इसके बाद वर्ष 2009 के संगीत-आयोजन के सरताज गीत और लोकप्रिय गीत पुरस्कारों का वितरण हुआ। इसके तहत पुणे के संगीतकार-गायक रफीक शेख को रु 6000 का नगद इनाम (सरताज गीत के लिए) और केरल के निखिल-चार्ल्स-मिथिला की टीम को रु 4000 का नगद इनाम (लोकप्रिय गीत के लिए) दिया गया। जहाँ लोकप्रिय गीत के पुरस्कार का चेक लेने के लिए निखिल अपने पिता और अपनी बहन निखिला के साथ इस कार्यक्रम में उपस्थित होने केरल से पधारे थे , वहीं रफ़ीक शेख़ का चेक रफीक की ओर से हिन्द-युग्म के कवि मनीष वंदेमातरम् ने लिया।

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के एसोशिएट प्रोफेसर डॉ॰ मुकेश गर्ग ने बहुत सधी हुई भाषा में साहित्य और संगीत के अंतर्संबंध पर अपनी रखी। उन्होंने बताया कि 50 के दशक में रेडियो पर सुगम संगीत (लाइट म्यूजिक) की शुरूआत फिल्मी गीतों की प्रतिक्रिया के तौर पर हुई थी। उस जमाने के साहित्य, कला और संगीत के कर्णधार ये मानते थे कि फिल्मी संगीत घटिया म्यूजिक है और उन्होंने फिल्मी गीतों का रेडियो पर प्रसारण बंद करवा दिया। लेकिन लोकतंत्र में लोक की पसंद का भी ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए 5-7 साल के अंदर ही विविध भारती चैनल शुरू करना पड़ा। मज़े की बात ये है कि सौंदर्य और अभिरुचि समय के साथ इस तरह बदलती है कि कई बार उनपर विचार करने से ताज्जुब होता है। 50 और 60 के दशक के फिल्मी गाने आजके लोगों के लिए श्रेष्ठता के मानदंड बने हुए हैं, जबकि उस समय के विशेषज्ञ उसे घटिया मानते थे। सुगम-संगीत बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ, जबकि इसमें गंभीर साहित्य को संगीत के साथ जोड़ने का प्रयास किया जा रहा था।

डॉ॰ मुकेश गर्ग ने निराला की गीतिका और रवीन्द्र नाथ टैगोर के रवीन्द्र संगीत के माध्यम से अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि गेयता किसी शब्द के अंदर ही होती है। नवभारत टाइम्स, जनसत्ता को आप भले ही गा दें, लेकिन इससे नवभारत टाइम्स गेय नहीं हो जायेगा। हमारे भक्तिकालीन जितने भी कवि हुए, उन सबकी रचनाएँ तब से लेकर अब तक गायी जाती हैं। संगीत को साड़ी की तरह नहीं लपेटा जा सकता। बहुत कम ऐसा हो पाता है कि कोई बहुत बढ़िया रचना को कोई संगीतकार उसी साहित्यिक गंभीरता और संवेदनात्मक स्तर के साथ गा ले। कर्ण का कवच-कुंडल को बाहर से पहनाना अलग बात है और कर्ण के शरीर पर उसे देखना एक अलग बात है। भक्तिकालीन गीतों की खासियत यह थी कि उनकी रचना प्रक्रिया में ही संगीत घुसा हुआ था। गाते-गाते रचा गया। इसी वजह से भक्तिकालीन सारी रचनाएँ लोकभाषा में होती थीं। यहीं पर शब्दों के गोल होने की बात उठती है। लोक किसी शब्द को घिस-घिसकर गोल बना देता है। लोकभाषा अक्सर गोल होती है। कृष्ण संस्कृत का शब्द है, कान्हा उसे सॉफ्ट बनाने की कोशिश है, कन्हाई थोड़ा और गोल बनाने की कोशिश और कन्हैया पूरी तरह से गोल हो चुका शब्द है। कोई शब्द 4-5 पीढ़ियों के यात्रा के बाद गेय होता है। इसीलिए संस्कृत कभी गेय भाषा नहीं रही। वह स्वरों के साथ पाठ की भाषा रही। शास्त्रीय संगीत के लिए ब्रजभाषा सबसे उपयुक्त भाषा है।

‘काव्यनाद’ पर टिप्पणी करते हुए मुकेश गर्ग ने कहा सबसे पहले मैं इस बाद के लिए हिन्द-युग्म को साधुवाद देना चाहूँगा कि इसने उन कविताओं को संगीतबद्ध करने की कोशिश की है जिन्हें गाना बहुत मुश्किल है, उसकी वजह यह है कि ये सभी कविताएँ संस्कृष्ठनिष्ठ शब्दों वाले हैं, उन्हें संगीतबद्ध करना तो मुश्किल नहीं है, लेकिन ऐसा बनाना कि लोग इसे गायें, बहुत मुश्किल है। सभी कविताओं के मुझे वो संस्करण पसंद आये जो बिना ताल के गाये गये हैं, लेकिन मुझे कुहू गुप्ता का पाश्चात्य शैली में गाया गया एक गीत ‘जो तुम आ जाते एक बार’ बहुत पसंद आया। इस गीत के बीच में नाटकीय ढंग से बोला गया डायलाग भी बहुत पसंद आया। मुझे यदि ‘काव्यनाद’ से कोई एक गीत चुनना हो तो यही गीत चुनूँगा। मैं चाहता हूँ कि इस तरह के प्रयास ज़ारी रहे।


‘सुनो कहानी’ का लोकार्पण करते विभूति नारायण राय, अशोक बाजपेयी और डॉ॰ मुकेश गर्ग

प्रेमचंद की कहानियों के एल्बम ‘सुनो कहानी’ पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति और प्रसिद्ध कथाकार विभूति नारायण राय ने कहा कि हमारे समय में यथार्थ कितनी तेजी से बदल रहा है यह देखना हो तो आज से पहले जब कहा जाता था कि ‘मसि-कागद छुयो नहीं॰॰॰॰’ को अब ऐसे कहा जा सकता है कि यदि आपने माउस-कीबोर्ड नहीं छुआ तो आज के समय के साथ कदमताल नहीं कर सकते। उन्होंने प्रेमचंद के डिजीटल रूप की प्रसंशा की और कहा कि यदि हिन्द-युग्म चाहे तो हमारा विश्वविद्यालय हिन्द-युग्म के साथ मिलकर इस तरह के प्रयासों में भागीदार हो सकता है। उन्होंने विश्वविद्यालय की वेबसाइट हिन्दीसमय डॉट कॉम पर जल्द ही 1 लाख साहित्यिक पृष्ठों के अपलोडिंग की बात की और कहा कि हिन्द-युग्म या अन्य कोई वेबसाइट जब चाहे तब उनकी वेबसाइट से आवश्यक जानकारियाँ ले सकता है और हिन्दी के बड़े समुदाय तक हिन्दी साहित्य की बातें पहुँचा सकता है।

अंत में कार्यक्रम के संचालक प्रमोद कुमार तिवारी ने कार्यक्रम के अध्यक्ष, ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि अशोक बाजपेयी को माइक पर आमंत्रित किया। अशोक बाजपेयी ने कहा कि पहले यह बात समझने वाली है कि इससे क्या साहित्य और संगीत की लोक-पहुँच पर कोई फर्क पड़ता है। भारत में 19वीं सदी तक कविता, संगीत और रंगमंच साथ-साथ थे, लेकिन जब पश्चिम प्रेरित आधुनिकता का हस्तक्षेप हुआ तब ये तीनों चीजें अलग-अलग हो गईं। कई बार इनके बीच की खाई पाटने की कोशिश हुई है और मैं इस प्रयास का भी स्वागत करता हूँ।

उन्होंने आगे कहा कि कविता में संगीत खुद होता है, कवि या कोई काव्य-मर्मज्ञ उसे जब पढ़ता है या गाता है तो संगीत के साथ ही गाता है। इसे गहराई से समझने की ज़रूरत है कि कविता गाने से क्या उसके नये अर्थ खुलते हैं।

अंत में गायक संगीतकार निखिल, कृष्णा पंडित और निखिला ने आवाज़ का उद्‍‌घोष गीत ‘आवाज़ के रसिया हैं हम’प्रस्तुत किया जिसे इन्होंने कार्यक्रम शुरू होने से कुछ समय पहले ही तैयार किया था। धन्यवाद ज्ञापन आवाज़ के संपादक सजीव सारथी ने किया।

कार्यक्रम में ‘काव्यनाद’ के संकल्पनाकर्ता आदित्य प्रकाश और इस प्रोजेक्ट के सहयोगी ज्ञान प्रकाश सिंह को भी उपस्थित होना था, लेकिन किन्हीं अपरिहार्य कारणों से सम्मिलित न हो सके। कार्यक्रम में आकाशवाणी के वरिष्ठ उद्‍घोषक प्रदीप शर्मा, वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार, पुस्तक वार्ता के संपादक भारत भारद्वाज, लंदन से पधारे मोहन अग्रवाल के अलावा सैकड़ों गणमान्य लोगों ने भाग लिया।

अन्य झलकियाँ-


संचालक प्रमोद कुमार तिवारी


दर्शक-दीर्घा


डॉ॰ मुकेश गर्ग


विभूति नारायण राय


अशोक बाजपेयी


आवाज़ का परिचय देते दीप जगदीप


दीप जगदीप, संचालक और अतिथि


मंच


‘काव्यनाद’ का अनावरण करते अशोक बाजपेयी


‘लोकप्रिय गीत’ पुरस्कार का चेक मुख्य अतिथि के हाथों ग्रहण करते निखिल


रफीक़ शेख़ की ओर से ‘सरताज गीत’ पुरस्कार का चेक मुख्य अतिथि के हाथों ग्रहण करते मनीष वंदेमातरम्


‘आवाज़ के रसिया हैं हम’ गीत पेश करते निखिला, निखिल और कृष्णा पंडित


धन्यवाद ज्ञापित करते आवाज़ के संपादक सजीव सारथी


बाएँ से दाएँ- सखी सिंह, मनीष वंदेमातरम्, शैलेश भारतवासी, प्रमोद कुमार तिवारी, मोहन अग्रवाल, दीप जगदीप और महुआ


फुरसत के पलों में- निखिला, निखिल, कृष्णा पंडित और सजीव सारथी


शैलेश भारतवासी, प्रमोद कुमार तिवारी और मोहन अग्रवाल

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